अब्दुल सत्तार सिलावट
शारदा एक्ट। अक्षय तृतीया। एक पखवाड़े तक ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात सरकारी अधिकारी पटवारी, तहसीलदार, गाँव की पुलिस चौकी का दारोगा, सभी बाल विवाह रोकने के लिए मुस्तैद। घोड़ी, बैंड, टेन्ट, हलवाई और कार्ड छापने वाले अपना मेहनताना तय करने से पहले दुल्हा-दुल्हन की उम्र की जाँच करते हैं, पास-पड़ौसीयों से। शादी के घर में दुल्हा-दुल्हन के मेहन्दी, पीटी और तेल की रशम से अधिक चिन्ता बालिग होने के प्रमाण पत्र फूल माला की जगह उनके गले में लटकाये रखो और रिश्तेदारों के यहाँ से 'बान' और बन्दोली खाने से अधिक सुबह से शाम तक जाँच करने को आने वाले गाँव के कलेक्टर पटवारी और उनके साथियों को चाय-पानी, अमल की मनुहार में घर का एक बड़ा आदमी लगा रहता है।
अक्षय तृतीया पर नाराज़ रिश्तेदारों, पड़ौसीयों, गाँव में आपकी प्रतिभा से जलने वाले और खेत की ज़मीन पर पड़ौसी से झगड़े का बदला लेने का ऐसा मौका होता है जिसे सभी 'भुनाने' में लग जाते हैं। ऐसे लोग सरकारी अधिकारियों को चोरी-छुपे फोन पर या पोस्टकार्ड लिखकर अपने प्रतिद्वन्दी का ठीकाना बता देते हैं। इसके बाद सरकारी अफसरों, गाडिय़ों और पुलिस के चक्कर लगने से शादी के घर में दुल्हा-दुल्हन के 'लाड़-कोड़' करना भुल कर गाँव के सरपंच, चौपाल के फालतू नेताओं के बीच शादी वाले घर का मुखिया अपने समर्थन में चार लोग जुटाने में ही व्यस्त हो जाता है।
हमारे पूर्वजों ने अक्षय तृतीय (आखा तीज) को 'अणबुझिया मुहुर्त' (बिना पंडित जी को दिखाये शादी का मुहुर्त) और शुभ दिन क्यों बताया इसके पीछे गाँव की गरीबी, निरन्तर अकाल, सूखा से किसान की आर्थिक स्थिती कमजोर होना और यही हालात आज भी है किसान अकाल और सूखे से बचाकर अपनी लहलहाती फसलों को देख बेटी की शादी के सपने बुन रहा था और प्राकृतिक आपदा ने पश्चिमी विक्षोभ के नाम से पकी-पकाई फसलों पर ओलावृष्टी, भारी बारिश ने तबाही कर दी और यह तबाही किसान के घर एक बार नहीं बल्कि निरन्तर एक माह से चल रही है।
गाँवों में सामूहिक परिवार होते हैं। एक बाप के चार बेटे। चारों बेटों के तीन-तीन, चार-चार बेटा बेटी। इन बच्चों में से चार छ: हम उम्र शादी के लायक बालिग हो जाते हैं और परिवार के मुखिया को शादी खर्च की चिन्ताएं घेर लेती है तथा वह अपनी फसल की अच्छी पैदावार की उम्मीद में दो-तीन साल तक शादी को आगे खींच लेता है। गाँवों की परम्परा में बड़ा परिवार, बड़ी रिश्तेदारियां और घर की प्रतिष्ठा के अनुसार शादी में बड़ा खर्च सामूहिक भोज में ही होता है और इसके लिए घर के बड़े-बुजुर्ग की मौत के बाद उनके 'फूल' (अस्थियां) बड़े आयोजन तक हरिद्वार नहीं ले जाकर घर में ही रखते हैं। जब बच्चों की शादी की तैयारी हो जाती है तब घर में रखी अस्थियां हरिद्वार ले जाकर गंगाजी में विसर्जित कर वहाँ से गंगाजल लेकर आते हैं और गाँव के प्रवेश द्वार से घर तक गंगा जल को सर पर उठाकर घर की औरतें ढ़ोल बाजों के साथ घर लाती हैं और अब गंगा प्रसादी के रूप में सामूहिक भोज की तैयारी होती है।
गंगा प्रसादी के सामूहिक भोज में पिताजी की मौत का 'मौसर', बच्चों की शादीयां और नये पैदा हुए बच्चों की ढूंढ़ का खाना भी शामिल हो जाता है। गाँव के बड़े घरों में दस-बीस साल में एक ही बड़ा खाना होता है जिसमें उस जाति का पूरा समाज (न्यात) गाँव के करीबी लगभग सभी शामिल हो जाते हैं।
ऐसे आयोजन में बाल विवाह का सत्य भी जान लीजिए। बड़े परिवार के तीन-चार भाईयों के बालिग बच्चों के साथ उनसे छोटे बारह साल, दस साल या आठ साल और कई बार दो-तीन साल के बच्चों को भी थाली में बैठाकर अग्नि फेरे पहले करवाते थे जो अब लगभग स्वत: ही बंद कर दिये गये हैं। नाबालिग बच्चों की शादीयां करने के पीछे गाँवों के गरीब और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों को बार-बार विवाह के खर्च से बचाने की परम्परा है जबकि बालिग भाई-बहनों के साथ होने वाली नाबालिग या बाल विवाह में शादी की मात्र रशम अदायगी है। यह बच्चे जब जब बालिग होते हैं तब तब इनके गौने (मुकलावा) होते हैं और फिर सुहागरात की दहलीज तक पहुंचते हैं इसलिए इस बाल विवाह को 'मंगनी' या सगाई की रशम जितना ही माना जाता है।
शारदा एक्ट में बाल विवाह के बाद शारीरिक सम्बन्धों (सुहागरात) को बच्चों का शोषण मानकर अपराध बनाया गया था, लेकिन मौजूदा हालात में गाँव के लोग गरीबी की मार के कारण बालिग बच्चों के शादी खर्च में छोटे बच्चों की शादी की रशम अदायगी करते हैं जबकि इनके बालिग होने पर ही सुहागरात तक यह शादीयां पहुँचती है। पढ़ी लिखी एनजीओ से जुड़ी महिला हो या गाँव की अनपढ़-गंवार कही जाने वाली रूढ़ीवादी गृहिणी। इतना सभी जानते हैं कि लड़की जब तक बालिग या परिपक्व नहीं हो जाती उसको गौना या सुहागरात तक कैसे पहुँचा सकते हैं। हमारे देश में रेड लाईट एरियों में 'धंधा' करवाने वाली चकला मालकिनें खरीद कर लाई लड़कियां जब तक बालिग नहीं हो जाती हैं उनकी 'नथ उतरवाने' का सौदा भी नहीं करती हैं फिर गाँव की एक माँ जिसने अपनी कोख से जिस बेटी को पैदा किया है उसे बिना बालिग हुए शारीरिक शोषण के लिए ससुराल कैसे भेज सकती है।
शारदा एक्ट का हम सभी सम्मान करते हैं, लेकिन साल के 365 दिन की शादियों में बाल विवाह की चिन्ता से मुक्त हमारी सरकारें, गैर सरकारी संगठन, जनप्रतिनिधि और जागरूक एवं बुद्धिजीवी गाँवों की गरीबी में हो रहे छोटे भाई बहनों की शादी की रशम अदायगी को बाल विवाह या शारदा एक्ट के उल्लंघन के रूप में नहीं देखकर सरकार की सामूहिक विवाह प्रोत्साहन योजना में शामिल कर गाँव के गरीब के बच्चों की सामूहिक शादी में आर्थिक सहयोग की नीति बनाकर प्रोत्साहित करना चाहिये।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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