Friday, April 24, 2015

शाह का दौरा तय करेगा राजस्थान का भविष्य...


अब्दुल सत्तार सिलावट
देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बाद भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़े नेता अमित शाह या यह भी कह सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से दिल्ली के लालकिले की दिवार तक प्रधानमंत्री बनाकर पहुंचाने वाला चाणक्य और आज भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में पूरे भारत में भाजपा की प्रदेश सरकारें बनाने में एक के बाद एक कदम सफलता की ओर।
अमित शाह ने जिस पर हाथ रखा वह केन्द्र सरकार में मंत्री या प्रदेश का मुख्यमंत्री बना जिनमें महाराष्ट्र, हरियाणा के अन्जान चेहरे उल्लेखनीय है। राजस्थान में अमीत शाह पहली बार आ रहे हैं जबकि राजस्थान में विधानसभा, निकाय या पंचायत स्तर तक के चुनाव भी नहीं हैं, लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के राजस्थान दौरे को ऐतिहासिक एवं यादगार बनाने के लिए सिर्फ प्रदेश भाजपा ही नहीं बल्कि वसुन्धरा राजे की पूरी सरकार समारोह स्थल को सजाने में लग गये हैं।
अमर जवान ज्योति के सामने अमित शाह की विशाल सभा में आने वाले प्रदेश भर के भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए जो मंडप बनाये गये हैं उन्हें देखकर वसुन्धरा राजे की पिछली सरकार के समय वल्र्ड ट्रेड पार्क के शिलान्यास की याद ताजा हो जाती है जिसमें शाहरूख खान ने सोने की ईंट से नींव रखी थी और वातानुकुलित मंडप में विश्व भर से ज्वैलर्स ने भाग लिया था।
राजस्थान की राजनीति पर 'पैनी नजर' रखने वाले चाणक्य कहते हैं कि मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे अमित शाह के इस दौरे को ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय बनाकर नरेन्द्र मोदी एण्ड कम्पनी जिसमें अमित शाह भी प्रमुख हैं इनके दिलों में वसुन्धरा राजे के प्रति फैली 'गलत फहमी' मिटाने का प्रयास कर रही है, जबकि कुछ लोग ऐसे शगुफे भी छोड़ रहे हैं कि अमित शाह अपने वफादार साथी ओम माथुर के 'उज्जवल' भविष्य की नींव रखने आ रहे हैं। भगवान करे यह शगुफा झूठा हो। क्योंकि राजस्थान सरकार और विशेषकर मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे इस समय रिसर्जेंट राजस्थान के मार्फत राजस्थान में सौ साल तक एक तरफा विकास की नींव रखने में दिन रात व्यस्त हैं। देश-विदेश में मुख्यमंत्री राजे के दौरों के अलावा पूरे मंत्रिमण्डल के प्रयास बताते हैं कि राजस्थान में सिर्फ उद्योगपति ही नहीं इनसे जुड़े लाखों परिवारों को रोजगार, व्यवसाय, छोटे उद्योग, किसान की फसलों को उचित मूल्य एवं अन्य विकास के नये रास्ते भी खुलेंगे।
चाणक्य का उपदेश है कि राजनीति में अपने से तेज भाग रहे साथी में यदि स्वयं का बेटा भी है तब भी उसे गिराने या रोकने का प्रयास किया जाना चाहिये। ऐसा ही राजस्थान की राजनीति में भी सम्भावित लग रहा है। आज देश के किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री अपने राज्य के लिए ऐसे प्रयास नहीं कर रहा है जो मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे कर रही हैं या यूं भी कह सकते हैं कि केन्द्र में नरेन्द्र मोदी और राजस्थान में वसुन्धरा राजे एक ही गति से विदेश दौरे एवं देश के विभिन्न राज्यों से उद्योगों के लिए निवेश लाने का प्रयास कर रहे हैं।
अमित शाह का दौरा राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे की पीठ थपथपाता है या 162 विधायकों के कान में अपने वफादार दोस्त को आगे बढ़ाने का मंत्र फूंकता है। जो भी हो 25 अप्रेल को 'शनि' किसके लिए शुभ होता है और किसके लिए 'प्रकोप' बनेगा। इसका फैसला मंच पर बैठने की व्यवस्था और अमित शाह के भाषण में किसकी प्रसंशा होती है इसी से मेरे राजस्थान के विकास का भविष्य तय हो जायेगा।

'बेलगाम भाषण' टोपी-बुर्के को भाजपा से धकेल रहे हैं...
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के स्वागत में हजारों मुसलमानों को टोपीयां पहनाकर एवं मुस्लिम औरतों को काले बुर्के पहनाकर शानदार स्वागत कर पूरे देश में और विशेषकर यूपी-बिहार के मुसलमानों को भाजपा के साथ आने का संदेश दिया जायेगा। भारत का मुसलमान तो कांग्रेस छोड़कर लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा के साथ आ गया था, लेकिन अपनी पार्टी के 'सांपनाथ-नागनाथ'  बने नेताओं के मुस्लिम विरोधी भाषण मुसलमानों की भाजपा के प्रति विश्वसनीयता को आपके दिलों में ही कम कर दिया है जिससे राजस्थान दौरे में आपके स्वागत में 'टोपी-बुर्के' का प्रदर्शन दौहराना पड़ रहा है।
अमित शाह साहब, आजादी के बाद देश और प्रदेश (राजस्थान) में जब भी भाजपा का शासन रहा तब मुसलमान सुरक्षित रहा है। मुसलमान भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे पर भरोसा ही नहीं करता है बल्कि इन्हें कांग्रेसीयों से ज्यादा मुसलमानों का हमदर्द मानता है, लेकिन आपकी पार्टी के 'बेलगाम' नेताओं के सिर्फ भाषण ही मुसलमान के भाजपा की ओर बढ़ते कदमों को रोक देता है। यूपी-बिहार में आप विजयी रहें, लेकिन थोड़े बहुत भी उल्टे परिणाम आये तो उनका श्रेय 'सांपनाथ-नागनाथ' ब्रांड नेताओं की ही देना चाहिये।
भाजपा की प्रदेश ईकाई में बैठे मुस्लिम नेता अमित शाह के स्वागत में हजारों की संख्या में सर पर टोपीयां पहनकर और औरतें बुर्का पहनकर अमित शाह का एयरपोर्ट से मंच तक के रास्ते में किसी एक स्थान पर फूल बरसा कर बतायेंगे कि राजस्थान का मुस्लिम भाजपा के साथ है। इतनी तेज गर्मी में मुसलमानों का ऐसा प्रदर्शन क्यों हो रहा है। जबकि ऐसे नाटकिय टोपी-बुर्का प्रदर्शन चुनाव के वक्त मतदाताओं में भ्रम फैलाने के लिए होता है।
अमित शाह के स्वागत में मुसलमानों को एयरपोर्ट से आते वक्त जयपुर डेयरी के पास फूल बरसाने एवं अमित शाह को टोपी पहनाकर रूमाल गले में डालने का स्थान तय किया है। सभा स्थल से तीन किलोमीटर दूर हजारों मुसलमान स्वागत के बाद वापस सभा स्थल अमरूदों का बाग तक दो-तीन घंटे में भी नहीं पहुंच सकते हैं फिर भाजपा के नेताओं ने ऐसा स्थान क्या मुसलमानों को अमित शाह की विशाल सभा से दूर रखने के लिए चुना है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Thursday, April 23, 2015

कौन रोकेगा किसान की आत्महत्याएं?


अब्दुल सत्तार सिलावट

''किसान की फसलों के अलावा देश में अन्य व्यापार, उद्योगों में भी आपदाएं, मंदी, अंतर्राष्ट्रीय बाजार की मार से, शेयर मार्केट के लुढ़कने से करोड़ों रूपये डूब जाते हैं। कपास या सूत के निर्यात बंद होने पर पाँच पाँच रूपया मीटर भाव टूटने से मिल मालिकों को करोड़ों का नुकसान हो जाता है। सट्टा बाजार के ऑनलाइन व्यापार में भी करोड़ों के घाटे आपने सुने होंगे, लेकिन कभी किसी मिल मालिक, शेयर बाजार के दलाल, एक्सपोर्टर को आत्महत्या करते नहीं सुना होगा, जबकि देश के बड़े उद्योगपतियों के पास राष्ट्रीय बैंकों के हजारों करोड़ के लोन डूबत खाते में न्यायालयों के मुकदमों में फंसे पड़े हैं, लेकिन गाँव का किसान दस-बीस हजार के कॉपरेटीव लोन या साहूकार की उधारी नहीं चुकाने पर समाज-परिवार को मुँह दिखाने लायक नहीं रहता है और आत्महत्या कर देता है। अब आप ही बताएं कौन खुद्दार है किसान या बैंकों का हजारों करोड़ लेकर बैठा उद्योगपति। समाज और सरकार किसान की खुद्दारी बचाने के लिए 100-100 रूपये के चैक देने बंद कर उसका वास्तविक नुकसान भुगतान करे। सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्ते की तरह किसान के लिए भी एक सम्मानजनक मासिक आय निर्धारित कर उसकी फसल का उचित मूल्य तय करे। तभी किसानों की आत्महत्याएं बंद होंगी अन्यथा किसान की मौत पर सरकारें भले ही शर्मिंदा ना हों, लेकिन भगवान जरूर शर्मसार हो जायेगा।''

भारत कृषि प्रधान देश है और आज देश के कौने-कौने में किसान आत्महत्याएं कर रहा है। हमारे प्रधानमंत्री फ्रांस, जर्मनी, कनाडा की विदेश यात्राओं के बाद राज्यों के मुख्य सचिवों से वीडियो कांफ्रेंसिंग कर प्रगति पूछ रहे हैं। संसद में भूमि अधिग्रहण बिल पर किसान के शोषण पर विपक्ष से शक्ति परीक्षण चल रहा है। हमारे राजस्थान में भी आठ माह बाद होने वाले रिसर्जेंट राजस्थान की तैयारी में मुख्यमंत्री के साथ मुख्य सचिव और प्रदेश को चलाने वाले मुख्य ब्यूरोक्रेट्स जापान से कलकत्ता तक नया निवेश लाने में व्यस्त हैं। उद्योगों के विकास के प्रयास प्रसंसनीय हैं, लेकिन प्रदेश का किसान ओलावृष्टी और बेमौसम की बरसात से बर्बाद होने के बाद विधानसभा से गाँव की चौपाल तक सरकारी सहायता की घोषणाओं की उम्मीद पर अपने घर खर्च से बेफिक्र होकर अपने खेतों में मवेशियों के लिए बची हुई घास निकालने में लगा था, लेकिन सरकारी मदद के नाम पर हजारों के नहीं 100-200 रूपये के चैक देखकर उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया और इसी सरकारी मदद के बाद किसान आत्महत्याएं कर रहा है या हार्ट अटैक से मर रहा है, हमारे किसी राजनेता को इसकी चिन्ता नहीं है!
राजस्थान के दौसा के किसान की दिल्ली में 'आप' के सम्मेलन में पेड़ से लटककर आत्महत्या की खबर राजस्थान में सत्ता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष के 'आवभगत' की तैयारियों में दबकर रह गई। भाजपा को अगले चार साल तक वोटों की जरूरत नहीं है इसलिए ग्रामीण, मजदूर, गरीब, किसान की चिन्ता से मुक्त नेता स्थाई साथी उद्योगपति, बिल्डर्स, ज्वैलर्स, एक्सपोर्टर्स के साथ 'गलबहियों' में उलझे हुए हैं। कुछ नेता अन्य प्रदेशों से राज्य में निवेशक लाने के प्रयासों में हवाई सफर कर रहे हैं। किसान के दर्द से सभी बेखबर। नेताओं और अफसरों को ऐसा लगता है कि राजस्थान में ओलावृष्टी से फसलें पिछले साल बर्बाद हुई थीं, जबकि दस दिन पहले तक विधानसभा में कुछ विधायक किसानों की बर्बादी पर राहत की माँग उठा लेते थे और सरकार भी हमदर्दी के आँसूओं के साथ मुफ्त बिजली, ब्याज मुक्त कर्ज जैसी घोषणाएं कर देती थीं, लेकिन अब किसान की बात करने की किसी को फुर्सत नहीं है।
आजादी के बाद से अब तक देश के राजनेताओं को संसद पहुँचाने एवं देश की तरक्की में कृषि करने वाला किसान 'रीढ़ की हड्डी' बनकर अपने घर-परिवार और स्वास्थ्य की 'आहुति' देता रहा है, लेकिन हमारी सरकारें ऑफिस के चपरासी को पन्द्रह हजार रूपया महीना दे देती है जबकि किसान मात्र तीन हजार रूपये मासिक आय ही ले पाता है अपनी फसलें बेचकर। किसान ओलावृष्टी से बर्बाद फसल पर सरकार से मदद मांगता है तब संसद में मंत्री नीतिन गडकरी भगवान पर भरोसा रखने की सलाह देते हैं और केन्द्र सरकार के कर्मचारियों को सातवां वेतन आयोग देते वक्त देश की आर्थिक स्थिती सुधरने तक कर्मचारियों को भगवान पर भरोसा रखने की सलाह देने का साहस किसी मंत्री या प्रधानमंत्री में नहीं हैं।
देश का भाग्य विधाता किसान को जयपुर नगर निगम के सफाई कर्मचारी से भी कम आय पर गाँवों में लू के थपेड़ों और भट्टी सी सुलगती जमीन पर भरी दोपहरी में नरेगा में काम करने पर सभी 'कमीशन' काटने के बाद एक सौ रूपये हाथ में आते हैं और वह भी पूरे तीस दिन नहीं।
किसान की फसल आने के बाद मंडियों में सरकार न्यूनतम दर 1450 रूपये तय तो कर लेती है, लेकिन इस सरकारी दर पर उद्योगपति और मंडी का व्यापारी भी किसान से खरीद नहीं करता है और सरकार तो व्यापारियों के ईशारों पर किसान को सरकारी दर से कम पर बेचने को मजबूर कर ही देती है। इन हालात में किसान भगवान के अलावा किस से फरीयाद करे और किसान जब फरीयाद कर करके थक जाता है तो आत्महत्याओं का दौर शुरू हो जाता है।
हमारे देश में प्राकृतिक आपदा बारीश, ओलावृष्टी, बाढ़, अकाल में देश भर से समाजसेवी पीडि़तों की मदद के लिए दवाईयां, कपड़ा, जरूरी सामान लेकर चले जाते हैं। चाहे गुजरात का भूकम्प हो या बद्रीनाथ में बादल फटने की घटना हो, हाल के कश्मीर में भारी बारीश से बर्बादी। सभी में देश भर से ट्रकें भरकर नेताओं से, समाजसेवीयों से हरी झण्डी दिखाकर आपदा वाले क्षेत्रों में राहत भेजी जाती रही है, लेकिन आश्चर्य और दु:ख इस बात का है कि देश में कपास उगाने वाले क्षेत्रों में किसानों ने फसलों की बर्बादी पर 70 प्रतिशत से अधिक आत्महत्याएं की हैं और देश के किसी भी टेक्सटाइल मिल मालिकों या बड़े टेक्सटाइल घरानों में से किसी भी उद्योगपति ने कपास पैदा करने वाले किसानों की मदद के लिए आगे आकर राहत देने का प्रयास नहीं किया जिससे हमारे किसान देश के लिए शर्मनाक मौत से बच सकते थे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Tuesday, April 21, 2015

दुनिया में कौमी एकता की मिसाल: ख़्वाजा का उर्स


अब्दुल सत्तार सिलावट
ख़्वाजा ग़रीब नवाज़। सरकार-ए-हिन्द। ग़रीब की फ़रियाद सुनने वालों का आस्ताना हमारे राजस्थान में। पाकिस्तान, बांग्लादेश ही नहीं, श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार), नेपाल और खाड़ी देशों में बसे अफगानिस्तान एवं अखण्ड भारत के सिर्फ मुसलमान ही नहीं, मुसलमानों से अधिक ख़्वाजा के दिवाने हैं गैर मुस्लिम। कौमी एकता में यकीन रखने वाले। सूफियाना इबादत को मानने वाले, सभी के क़दम हर साल उर्स मुबारक के मौके पर ख़्वाजा की चौखट अजमेर शरीफ़ की ओर बढऩे लगते हैं और वैसे तो साल भर हर इस्लामी महीने की छ: तारीख़ को ख़्वाजा के दरबार में छठी शरीफ़ की फ़ातिहा भी छोटा उर्स कहलाने लगी है।
सरकार-ए-हिन्द ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के उर्स मुबारक के झंडे की रश्म के साथ ही देश भर से पैदल आने वालों को अचानक दो दिन से तेज़ हुई गर्मी-लू के थपैड़ों और आग उगल रही डामर की सड़कों पर अपनी मन्नतों के लिए नंगे पाँव स$फर तय करते हुए भी देखा जा सकता है।
ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के दरबार में कोई छोटा-बड़ा, अमीर, दौलतमंद, सियासतदां या वज़ीर-ए-वक़्त नहीं होता। यहाँ हाथों में फूल, सर पर चादर लिये सभी अपनी मुरादों की झोलीयां फैलाये ख़्वाजा के आस्ताने की तरफ बढ़ते नज़र आते हैं और ख़्वाजा के दर पर आने वाले करोड़पति से लेकर झौपड़पट्टी के ग़रीब तक सभी मुरादें माँगते हुए ही आते हैं इसलिए ख़्वाजा को ग़रीब को नवाज़ने वाला 'ग़रीब नवाज़' कहा जाता है।
सरहदों पर चाहे गोलियां चलें या जासूसी के ड्रोन पकड़े जाये, लेकिन ख़्वाजा के दिवानों को उर्स मुबारक में आने के लिए हुकुमत-ए-हिन्द कौमी एकता का संदेश देते हुए वीजा भी ज़ारी करती है और ग़रीब नवाज़ के दिवानों का बिना किसी कड़वाहट के मेहमान नवाज़ी के लिए खुले दिल से इस्तक़बाल भी करती है।
अजमेर शरीफ़ की तरफ आने वाले देश भर के 'हाइवे', रेल की पटरियां और हवाई सेवा के साथ छोटी गाडिय़ों में आने वाले ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के दिवानों का राजस्थान की सरज़मीं पर छोटे गाँव, कस्बों और शहरों में खान-पान, वाहन मरम्मत और पैदल ज़ायरीनों का गैर मुस्लिम भाई भी ख़ूब अच्छा इस्तक़बाल करते हुए राजस्थान की मेहमान नवाज़ी की परम्परा 'पधारो म्हारे देस' के नारे को 'पधारो म्हारा ग़रीब नवाज़ री नगरी' के रूप में चरितार्थ करते हैं।
ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ का आस्ताना जितना मुसलमानों की अक़ीदत का दरबार है उससे कई गुना ज़्यादा गैर मुस्लिम भी ख़्वाजा की चौखट पर अपनी मुरादों की दस्तक देते हैं। देश के राजनेता हों या बड़े उद्योगपति और फिल्म नगरी के सितारे हों या खेल जगत की हस्तियां। सभी ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के आस्ताने पर अपनी क़ामयाबी की मुराद लेकर आते हैं और झोलीयां भरने के बाद 'शुकराने' की हाजिरी भी देते हैं।

मोदी से पहले ओबामा ने पेश की चादर...
ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ का उर्स शुरू होते ही देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यों के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री अपनी ओर से 'चादर' पेश कर मुल्क में अमन, तरक्की, ख़ुशहाली की मुराद मांगते हैं और इस बार भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ओर से 'चादर' पेश की गई तथा विदेश से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा की ओर से ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के आस्ताने पर अक़ीदत के साथ चादर पेश की गई। राजस्थान एवं हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल कल्याण सिंह की ओर से भी ख़्वाजा के दरबार में चादर पेश की गई।
जब राजनेताओं और अमेरिका से ग़रीब नवाज़ के आस्ताने पर 'चादर' पेश हो चुकी है तब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से अब तक 'चादर' नहीं आने पर चर्चाओं का बाज़ार गर्म हैं। राजनीति के पंडित बता रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी की गुजरात टीम के चाणक्य मोदी के नाम से ख़्वाजा के दरबार में चढ़ायी जाने वाली 'चादर' के गुण-लाभ देख रहे हैं। बताया जा रहा है कि मुसलमानों की टोपी-रूमाल से दूर रहने वाले नरेन्द्र मोदी द्वारा ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के आस्ताने पर 'चादर' चढ़ाने से हिन्दू कट्टरपंथियों की नाराज़गी हो सकती है या साक्षी महाराज की टीम के भगवा राजनेताओं में भी ग़लत संदेश जा सकता है। नरेन्द्र मोदी की टीम ख़्वाजा की चौखट पर 'चादर' चढ़ाने को लेकर 'पशो-पेश' (असमंजस) में हैं फिर भी प्रधानमंत्री पद की परम्परा के अनुसार ग़रीब नवाज़ के आस्ताने पर 'चादर' पेश करने से पहले कट्टरपंथियों को विश्वास में लेने के प्रयास चल रहे हैं जिससे 'चादर' की ख़बर के साथ ही 'उल्टे-सुल्टे' बयानबाजी से बचा जा सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Thursday, April 16, 2015

अक्षय तृतीया का मतलब बाल विवाह...


अब्दुल सत्तार सिलावट
शारदा एक्ट। अक्षय तृतीया। एक पखवाड़े तक ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात सरकारी अधिकारी पटवारी, तहसीलदार, गाँव की पुलिस चौकी का दारोगा, सभी बाल विवाह रोकने के लिए मुस्तैद। घोड़ी, बैंड, टेन्ट, हलवाई और कार्ड छापने वाले अपना मेहनताना तय करने से पहले दुल्हा-दुल्हन की उम्र की जाँच करते हैं, पास-पड़ौसीयों से। शादी के घर में दुल्हा-दुल्हन के मेहन्दी, पीटी और तेल की रशम से अधिक चिन्ता बालिग होने के प्रमाण पत्र फूल माला की जगह उनके गले में लटकाये रखो और रिश्तेदारों के यहाँ से 'बान' और बन्दोली खाने से अधिक सुबह से शाम तक जाँच करने को आने वाले गाँव के कलेक्टर पटवारी और उनके साथियों को चाय-पानी, अमल की मनुहार में घर का एक बड़ा आदमी लगा रहता है।
अक्षय तृतीया पर नाराज़ रिश्तेदारों, पड़ौसीयों, गाँव में आपकी प्रतिभा से जलने वाले और खेत की ज़मीन पर पड़ौसी से झगड़े का बदला लेने का ऐसा मौका होता है जिसे सभी 'भुनाने' में लग जाते हैं। ऐसे लोग सरकारी अधिकारियों को चोरी-छुपे फोन पर या पोस्टकार्ड लिखकर अपने प्रतिद्वन्दी का ठीकाना बता देते हैं। इसके बाद सरकारी अफसरों, गाडिय़ों और पुलिस के चक्कर लगने से शादी के घर में दुल्हा-दुल्हन के 'लाड़-कोड़' करना भुल कर गाँव के सरपंच, चौपाल के फालतू नेताओं के बीच शादी वाले घर का मुखिया अपने समर्थन में चार लोग जुटाने में ही व्यस्त हो जाता है।
हमारे पूर्वजों ने अक्षय तृतीय (आखा तीज) को 'अणबुझिया मुहुर्त' (बिना पंडित जी को दिखाये शादी का मुहुर्त) और शुभ दिन क्यों बताया इसके पीछे गाँव की गरीबी, निरन्तर अकाल, सूखा से किसान की आर्थिक स्थिती कमजोर होना और यही हालात आज भी है किसान अकाल और सूखे से बचाकर अपनी लहलहाती फसलों को देख बेटी की शादी के सपने बुन रहा था और प्राकृतिक आपदा ने पश्चिमी विक्षोभ के नाम से पकी-पकाई फसलों पर ओलावृष्टी, भारी बारिश ने तबाही कर दी और यह तबाही किसान के घर एक बार नहीं बल्कि निरन्तर एक माह से चल रही है।
गाँवों में सामूहिक परिवार होते हैं। एक बाप के चार बेटे। चारों बेटों के तीन-तीन, चार-चार बेटा बेटी। इन बच्चों में से चार छ: हम उम्र शादी के लायक बालिग हो जाते हैं और परिवार के मुखिया को शादी खर्च की चिन्ताएं घेर लेती है तथा वह अपनी फसल की अच्छी पैदावार की उम्मीद में दो-तीन साल तक शादी को आगे खींच लेता है। गाँवों की परम्परा में बड़ा परिवार, बड़ी रिश्तेदारियां और घर की प्रतिष्ठा के अनुसार शादी में बड़ा खर्च सामूहिक भोज में ही होता है और इसके लिए घर के बड़े-बुजुर्ग की मौत के बाद उनके 'फूल' (अस्थियां) बड़े आयोजन तक हरिद्वार नहीं ले जाकर घर में ही रखते हैं। जब बच्चों की शादी की तैयारी हो जाती है तब घर में रखी अस्थियां हरिद्वार ले जाकर गंगाजी में विसर्जित कर वहाँ से गंगाजल लेकर आते हैं और गाँव के प्रवेश द्वार से घर तक गंगा जल को सर पर उठाकर घर की औरतें ढ़ोल बाजों के साथ घर लाती हैं और अब गंगा प्रसादी के रूप में सामूहिक भोज की तैयारी होती है।
गंगा प्रसादी के सामूहिक भोज में पिताजी की मौत का 'मौसर', बच्चों की शादीयां और नये पैदा हुए बच्चों की ढूंढ़ का खाना भी शामिल हो जाता है। गाँव के बड़े घरों में दस-बीस साल में एक ही बड़ा खाना होता है जिसमें उस जाति का पूरा समाज (न्यात) गाँव के करीबी लगभग सभी शामिल हो जाते हैं। 
ऐसे आयोजन में बाल विवाह का सत्य भी जान लीजिए। बड़े परिवार के तीन-चार भाईयों के बालिग बच्चों के साथ उनसे छोटे बारह साल, दस साल या आठ साल और कई बार दो-तीन साल के बच्चों को भी थाली में बैठाकर अग्नि फेरे पहले करवाते थे जो अब लगभग स्वत: ही बंद कर दिये गये हैं। नाबालिग बच्चों की शादीयां करने के पीछे गाँवों के गरीब और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों को बार-बार विवाह के खर्च से बचाने की परम्परा है जबकि बालिग भाई-बहनों के साथ होने वाली नाबालिग या बाल विवाह में शादी की मात्र रशम अदायगी है। यह बच्चे जब जब बालिग होते हैं तब तब इनके गौने (मुकलावा) होते हैं और फिर सुहागरात की दहलीज तक पहुंचते हैं इसलिए इस बाल विवाह को 'मंगनी' या सगाई की रशम जितना ही माना जाता है।
शारदा एक्ट में बाल विवाह के बाद शारीरिक सम्बन्धों (सुहागरात) को बच्चों का शोषण मानकर अपराध बनाया गया था, लेकिन मौजूदा हालात में गाँव के लोग गरीबी की मार के कारण बालिग बच्चों के शादी खर्च में छोटे बच्चों की शादी की रशम अदायगी करते हैं जबकि इनके बालिग होने पर ही सुहागरात तक यह शादीयां पहुँचती है। पढ़ी लिखी एनजीओ से जुड़ी महिला हो या गाँव की अनपढ़-गंवार कही जाने वाली रूढ़ीवादी गृहिणी। इतना सभी जानते हैं कि लड़की जब तक बालिग या परिपक्व नहीं हो जाती उसको गौना या सुहागरात तक कैसे पहुँचा सकते हैं। हमारे देश में रेड लाईट एरियों में 'धंधा' करवाने वाली चकला मालकिनें खरीद कर लाई लड़कियां जब तक बालिग नहीं हो जाती हैं उनकी 'नथ उतरवाने' का सौदा भी नहीं करती हैं फिर गाँव की एक माँ जिसने अपनी कोख से जिस बेटी को पैदा किया है उसे बिना बालिग हुए शारीरिक शोषण के लिए ससुराल कैसे भेज सकती है।
शारदा एक्ट का हम सभी सम्मान करते हैं, लेकिन साल के 365 दिन की शादियों में बाल विवाह की चिन्ता से मुक्त हमारी सरकारें, गैर सरकारी संगठन, जनप्रतिनिधि और जागरूक एवं बुद्धिजीवी गाँवों की गरीबी में हो रहे छोटे भाई बहनों की शादी की रशम अदायगी को बाल विवाह या शारदा एक्ट के उल्लंघन के रूप में नहीं देखकर सरकार की सामूहिक विवाह प्रोत्साहन योजना में शामिल कर गाँव के गरीब के बच्चों की सामूहिक शादी में आर्थिक सहयोग की नीति बनाकर प्रोत्साहित करना चाहिये।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Tuesday, April 14, 2015

देश में एक था भिंडरावाला...

ए.एस. सिलावट                  
एक था भिंडरावाला। कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए संत भिंडरावाला के मार्फत धार्मिक भावनाओं के साथ प्रवेश करने का प्रयास शुरु किया था। भींडरवाला के संत समागम में आने वाले भक्त सैकड़ों से हजारों और फिर लाखों की भीड़ में परिवर्तित हो गये। केन्द्र सरकार ने भक्तों को रेलगाड़ी से समागम स्थल तक जाने में मुफ्त यात्रा के लिए छूट दे दी और पंजाब रोडवेज की बसों की छतों तक भिंडरावाला के भक्तों को रोकने वाला कोई नहीं था। कहते हैं कि भिंडरावाला को संत से महासंत बनाने में इंदिरा गांधी का हाथ था और इंदिरा गांधी के अन्त में ऑपरेशन ब्लू स्टार और भिंडरावाला के भक्तों का हाथ था, यह पूरे देश और दूनिया ने देखा है।
उक्त संस्मरण को याद करने के पीछे मौजूदा माहौल में मोदी सरकार द्वारा इंदिरा जी की भिंडरावाला राजनीति के अनुसरण में भारत के कौमी एकता के सामाजिक बिखराव का भविष्य दिखाई देता है। ईश्वर ऐसा नहीं करे, लेकिन मोदी जी ऐतिहासिक भारी बहूमत से जीतने के बाद लाल किले की प्राचीर से सभी को साथ लेकर भारत के विकास की बात करते हैं, लेकिन पिछले एक साल से मुसलमानों की घर वापसी, नसबंदी, मताधिकार छिनने, लव जेहाद जैसे अभियान में लगे हिन्दू राष्ट्र के निर्माताओं को मौन समर्थन देकर कौन से ऑपरेशन ब्लू स्टार या 'ग्रीन स्टार' की तैयारी कर रहे हैं। इस बात से देश का मुसलमान ज्यादा आशंकित नहीं है बल्कि देश का धर्म निरपेक्ष बुद्धिजीवी हिन्दू और देश की सुरक्षा में लगी सुरक्षा एजेन्सीयां ज्यादा चिंतित हैंं।
मोदी जी और मुस्लिम विरोधी 'शगुफे' छोडऩे वाले इस बात से ज्यादा परेशान दिखाई देते हैं कि हर 'विषबाण' छोडऩे के बाद मुसलमानों की ओर से प्रतिक्रिया कम दिखाई देती है, जबकि टीवी न्यूज चैनलों और अखबारों की परिचर्चाओं में देश का बुद्धिजीवी और स्वयं मोदी जी की पार्टी भाजपा के उदारवादी नेता हिन्दू कट्टरपंथियों के बयानों का विरोध एवं खण्डन करते दिखाई देते हैं। भाजपा के सर्वोच्च पदों पर बैठे पाव दर्जन मुस्लिम नेताओं में नकवी, शाहनवाज और नजमा कहते हैं कि मोदी के मन में मुसलमानों के प्रति विकास की भावना है। मोदी जी कट्टरपंथियों के खिलाफ हैं। मोदी जी सबको साथ लेकर चलने के समर्थक हैं। इन बातों पर मुसलमान या देश का कट्टरपंथी भारतीय कैसे विश्वास करे, जबकि मोदी जी ने अपने केबिनेट में सहयोगी मंत्रीयों या विषबाण छोडऩे वाले तथाकथित धर्मगुरुओं एवं नेताओं की सार्वजनिक रुप से आलोचना भी नहीं की और उन्हें ऐसा करने से रोकने का अब तक एक भी बयान सार्वजनिक रुप से नहीं दिया है। ऐसी स्थिती में मोदी जी पर मौन समर्थन का आरोप अपनी जड़ें मजबूत कर रहा है।
शिवसेना सांसद संजय राउत ने मुसलमानों के मताधिकार को खत्म करने के साथ इन दिनों मुसलमानों के हित में बोल रहे औवेसी बंधुओं को 'सपौला' कहा। अब संजय जी को कौन समझाये कि आप जैसे सपेरे बीन बजायेंगे तो सपौले अपने बिलों से निकलकर बाहर आकर मस्ती में झूमेंगे ही। संजय जी अब तक तो एक सपौला दक्षिण के हैदराबाद के बिल से निकला है, लेकिन आप जैसे सपेरे कभी मताधिकार, कभी नसबंदी, कभी घर वापसी और लव जेहाद की बीन बजाते रहेंगे तो मुम्बई के अब्दुल रहमान स्ट्रीट से, दिल्ली की जामा मस्जिद से, लखनऊ की भुल-भुल्लैया से, जयपुर के रामगंज से, भोपाल-पटना और देश के हर हिस्से से ऐसे सपौले निकलने को तैयार बैठे हैं इसलिए आप जैसे सपेरे बेमौसम की बीन बजाना बंद कर देश के विकास, बेरोजगारी और मौसम की मार से परेशान किसान को राहत देने के चिंतन में लगकर अपना राजनैतिक धर्म निभाएं।
मोदी जी पिछले एक साल से दुनिया के शक्तिशाली देशों की यात्रा कर भारत की छवि को विश्व स्तर पर सर्वोच्च राष्ट्र बनाने और भारत के पहले प्रधानमंत्री जिन्होनें सर्वाधिक देशों की यात्राएं की हो ऐसा विश्व रिकार्ड बनाने में व्यस्त एवं सक्रिय हैं तथा प्रभु उन्हें सभी देशों में सफलता एवं सम्मान भी दे रहा है।
देश के सवा सौ करोड़ लोगों को मोदी जी की काबिलियत और ऊपर से दिखाई दे रही कौमी एकता एवं सबको साथ लेकर चलने वाले नारे पर विश्वास भी है, लेकिन क्या मोदी जी को ऐतिहासिक बहुमत देने वाले भारतीयों के विकास के सपनों को मोदी जी के साथ आई गुजराती अधिकारियों की टीम पूरा कर पाएगी? यह गुजराती टीम मोदी जी की विदेश यात्राओं में 'मोदी-मोदी' के नारे लगवाने के मैनेजमेन्ट में तो कामयाब है, लेकिन क्या कश्मीर से कन्या कुमारी तक फैले विशाल भारत की कौमी एकता को एक सूत्र में बांधकर रख पायेगी?
मोदी जी, इंदिरा गांधी देश ही नहीं विश्व स्तर पर कुशल राजनेता की पहचान रखती थीं। उन्होनें एक भिंडरावाला पैदा किया था जिसे आगे बढ़ाते-बढ़ाते इतना आगे बढ़ गया कि उसकी डोर उनके हाथों से ही निकल गई। आप कल्पना कीजिये कि इंदिरा जी 'एक' को नहीं सम्भाल पाईं और आपके चारों ओर रोज एक नया भिंडरावाला पैदा हो जाता है। जब इन्हें जन समर्थन और लाखों कट्टरपंथियों की भीड़ घेर लेगी तब क्या आप इन्हें अपने ओजस्वी भाषण से रोक पायेंगे? मोदी जी आपके हाथों जाने-अन्जाने में देश को ऑपरेशन 'ग्रीन स्टार' की ओर कुछ लोग धकेले जा रहे हैं। फ्रांस, जर्मनी और कनाड़ा यात्रा से लौटकर एक रात आप चिन्तन करें कि देश में चल रहे मुस्लिम विरोधी 'शगुफेबाजी' को रोका जाये या इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाये।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

मोदी समर्थकों से अनुरोध है कि इस लेख को एक पत्रकार की कलम के चिन्तन के रूप में देखें। लेखक गाँव की चौपाल में बैठा हो या नई दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के किसी गगनचुम्बी इमारत के अंग्रेजी अखबार के एसी चेम्बर में। उसकी कलम जब सत्यता को उजागर करती है तो हमारे नेता 'प्रोस्टीट्यूट्स' जैसे शब्दों तक स्वयं को गिरा देते हैं। यह लेख एक मुस्लिम पत्रकार की कलम से जरूर है, लेकिन मैंने पत्रकारिता का धर्म निभाया है। मैंने किसी 'सपौले' के दिल का दर्द या कट्टरपंथी के बयानों से दूर रहकर मौजूदा हालात में जो दिखाई दे रहा है उसे अपने पत्रकारिता के चालीस वर्षों के अनुभव को सामने रखकर लिखा है। इसलिए इस लेख की गहराई पर चिन्तन करें लेखक के नाम को देखकर 'कलम' की सच्चाई को कम नहीं आंकें। धन्यवाद।

Friday, April 10, 2015

गांव की 'डायन' पहुंची राजस्थान विधानसभा में...


ए.एस. सिलावट                                  
राजस्थान के ग्रामीणों, आदिवासियों और पिछड़े क्षेत्रों के भौपों, झाडफ़ूंक करने वालों की चौखट से 'डायन' आज सीधे विधानसभा पहुंच गयी और इस बार डायन को विधानसभा के सदन में प्रवेश दिलवाया मंत्री अनिता भदेल ने। राजस्थान में सतीप्रथा को रोकने का प्रयास तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत ने किया था और आज मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे की प्रेरणा से डायन बताकर गांवों में प्रताडि़त की जा रही गरीब, विधवा और मानसिक रूप से विक्षिप्त महिलाओं के शोषन को रोकने का विधेयक विधानसभा में पारित किया गया। यह विधेयक सिर्फ डायन शब्द पर कानूनी औपचारिकता ही नहीं है बल्कि 'राजस्थान डायन-प्रताडऩा निवारण विधेयक-2015' को जिस सख्ती से बनाया गया है आज विधानसभा में चर्चा के दौरान विपक्ष ही नहीं सत्ता पक्ष के विधायक भी 'डायन बिल' के लागू करने से सम्भावित 'मिस-यूज' को लेकर चिंतित दिखाई दिये।
विधानसभा में महिला विधायकों द्वारा डायन बनाने, प्रताडि़त करने एवं शोषण के लिए पुरूष प्रधान समाज को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया गया, लेकिन डायन बिल पर सबको प्रभावित करने वाली चर्चा सिरोही विधायक एवं देवस्थान राज्यमंत्री ओटाराम देवासी जो स्वयं 'भौपा' जी हैं तथा मुण्डारा अम्बा माता मंदिर के मुख्य संरक्षक भी है। मंत्री देवासी ने समाज में डायन प्रथा को कलंक बताया और कहा कि समाज में अंधविश्वास है तथा डायन नामक कोई शक्ति नहीं होती है। सरकार को डायन प्रथा में महिला उत्पीडन को रोकने के लिए प्रचार-प्रसार और कानून को सख्ती से लागू करना चाहिये।
मेवाड़ के राजसमंद के पास गत दिनों एक महिला को डायन बताकर प्रताडित करने एवं उसकी मौत के बाद सरकार ने डायन प्रथा को गम्भीरता से लिया एवं स्वयं मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे ने पिछड़े, आदिवासी एवं ग्रामीणों में डायन बताकर बाल काटने, गधे पर बैठाकर घुमाने, नग्न करके घुमाना आम बात हो गयी है तथा सरकार और पुलिस डायन बताकर प्रताडित करने वालों के खिलाफ इसलिए कार्यवाही नहीं कर पाती है की अब तक ऐसी घटनाओं में सैकड़ों लोगो के समूह शामिल देखे गये हैं लेकिन डायन प्रताडऩा बिल में पूरे समूह, पूरे गांव या मोहल्ला क्षेत्र के लोगों के खिलाफ सामूहिक मुकदमा दर्ज कर सात साल की सजा का प्रावधान भी रखा गया है।
डायन प्रताडना विरोधी बिल को सदन में प्रारम्भ में बहुत ही मजाकिया रूप में, हंसी-मजाक एवं बहुत ही छोटे रूप में आंका जा रहा था, लेकिन महिला विधायक अल्कासिंह ने जब पुरूष प्रधान समाज में सिर्फ महिला को ही डायन बताने एवं पुरूष के डायन नहीं होने पर प्रश्न किया तब सदन गम्भीर हुआ और विधायक अल्कासिंह ने बताया कि पति के मरने के बाद गरीब महिला से शारीरिक शोषण करने वाले, उसकी सम्पति हड़पने के षडय़न्त्र और कई बार मानसिक रूप से डिप्रेशन-डिसआर्डर महिलाओं को भी समाज के धूर्त लोग डायन बताकर उसे प्रताडि़त करते है और डायन बिल को शारदा एक्ट के बाल विवाह की तरह औपचारिकता मात्र से दूर रखकर सख्ती से लागू करने की मांग भी की गई।
राजस्थान में डायन प्रताडऩा विरोधी बिल की विधानसभा में चर्चा के दौरान विधायक घनश्याम तिवाड़ी ने बताया कि सीकर जिले के लक्ष्मणगढ़ में एक विशाल डायन मंदिर बना हुआ है जिसपर पूरे प्रदेश से डायन पीडि़त महिलाएं आती है। कांग्रेस के गोविन्दसिंह डोटासरा ने डायन मंदिर पर पचास लाख रूपये खर्च कर जिर्णोद्धार की जानकारी भी सदन को दी।
विधायक हनुमान बेनीवाल ने विधानसभा में बताया कि डायन प्रकोप से गरीब, अशिक्षित और आदिवासी ही पीडि़त नहीं है बल्कि पूर्व में नागौर जिला कलेक्टर (आई.ए.एस.) होते हुए भी उनकी शादी इसलिए नहीं हो पाई थी कि बाहर प्रचलन था कि कलेक्टर स्वयं डायन है।
सात बार विधायक बन चुके सुन्दरलाल ने बताया कि डायन प्रथा पर रोकथाम के लिए झाडफ़ूंक करने वालों को जेलों में डालो। यदि यह कानून डायन वाले बाबाओं को राजस्थान से भगा दे तो डायन प्रथा स्वत: ही खत्म हो जायेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Saturday, April 4, 2015

पुलिस की खाकी वर्दी का 'इकबाल' बुलन्द रहे


भारत सरकार नियंत्रक महालेखा परिक्षक (सीएजी) की वर्ष 2009 से 2014 तक की रिपोर्ट में पुलिस विभाग की वित्तीय प्रबंधन पर की गई रिपोर्ट पर आधारित समीक्षा...
ए.एस. सिलावट                                     
आमजन में विश्वास-अपराधियों में भय, राजस्थान पुलिस के इस स्लोगन को अक्सर लोग उल्टा कर मजाक बनाते हैं, लेकिन अगर सड़क पर एक्सीडेन्ट हो जाये और पुलिस को फोन करने के बाद देर से पहुँचे तो हम पुलिस से हाथापाई तक करतेे हैं, उनसे उलझते हैं, पुलिस के खिलाफ आक्रोश पैदा हो जाता है, जिसने टक्कर मारी उसे भूल जाते हैं।
हजारों पुलिस वालों के लवाजमे में से कोई शराब पीकर लडख़ड़ाता नजर आ जाये तो 'खाकी हुई शर्मसार' की खबरें तीन दिन तक गूंजती है। वैसे हमारे बुजुर्ग भी कह गये हैं कि पुलिस वाले की ना दोस्ती अच्छी ना दुश्मनी और आजकल के जुआरी, सटोरिये, लड़कियों की स्कूल के आसपास छेडख़ानी करते पकड़े जाने वाले शराबी आवारा छुटभैय्या कहते हैं कि पुलिस भ्रष्ट है और आम आदमी कहता है कि पुलिस रिपोर्ट भी नहीं लिखती है। आमजन ये सारी बातें पुलिस के बारे में सिर्फ सुनता ही है, आमजन को पुलिस पर विश्वास या भय दोनों से लेना देना ही नहीं है। हाँ इतना जरूर है कि आमजन पुलिस सुरक्षा के विश्वास को मानकर चैन की नींद सोता है। 
आप जिस पुलिस को कोसते हो, गालियां देते हो या भ्रष्ट कहते हो, उसकी असली जिन्दगी क्या है? पुलिस की मजबूरियां, पुलिस पर राजनेताओं और अफसरों का दोहरा शासन कैसे चलता है? इसकी एक छोटी रिपोर्ट आप सभी के सामने दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक ए.एस. सिलावट पेश कर रहे हैं:-
भारत सरकार के नियन्त्रक महालेखा परिक्षक जिसे हम आम भाषा में सीएजी कहते हैं ने 2009 से 2014 की रिपोर्ट में बताया है कि राजस्थान पुलिस 5 साल तक केन्द्र सरकार की सहायता से ही चलती रही है। राजस्थान सरकार ने अपना अंशदान 96 करोड़ रूपया दिया ही नहीं।
अपराधियों को पकडऩे के लिए गांवों में जाने पर पुलिस पर हमला, प्रदर्शनों और जुलुस को रोकने पर पुलिस पर पथराव, बड़े अपराधियों का पीछा करने पर पुलिस फायरिंग के समाचार आप रोज पढ़ते हैं। भारत सरकार की सीएजी रिपोर्ट कहती है कि 2009 से 2014 तक राजस्थान पुलिस के पास शारीरिक सुरक्षा के लिए बुलेट प्रुफ जैकेट नहीं थे। सर पर हैलमेट और इन सब से अलग हटकर शर्मसार करने वाली रिपोर्ट है कि पुलिस के जवानों के पास पर्याप्त मात्रा में लाठीयां भी नहीं थी। ड्यूटी पर दौडऩे से पहले थानों में एक-दूसरे से लाठीयां लेकर पाँच साल के कांग्रेस शासन में हमारी सुरक्षा करती रही राजस्थान पुलिस। 
आजकल अपराधियों के पास टाटा सफारी, फॉरच्यूनर, इन्डीवर और भी लग्जरी गाडियां मिल जाएंगी, लेकिन इन अपराधियों का पीछा करने के लिए राजस्थान पुलिस के पास पुरानी गाडियां, घिसे हुए टायर, 50 की स्पीड से अधिक दौड़ाने पर स्वयं ही बिखर जाये। ऐसा पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के काफिले में प्राटोकोल में दौड़ रही गाड़ी के साथ हुआ था जो रोहट के पास उलट गई थी और महिला पुलिस उप अधीक्षक गम्भीर घायल हो गईं थी। भारत सरकार की सीएजी रिपोर्ट कहती है कि राजस्थान पुलिस के पास जितने वाहनों की आवश्यकता है उससे मात्र 25 प्रतिशत वाहन ही उपलब्ध है जिनमें से अधिकतर 'खटाराÓ हैं। ऐसे में अन्य राज्यों के अपराधियों को पकडऩे के लिए प्राइवेट कार मंगवाने पर फरियादी कहते हैं कि पुलिस भ्रष्ट है, आप ही सोचें थानेदार क्या अपनी तनख्वाह में से टेक्सी का भुगतान करेगा।
वाहनों के बाद अस्त्र, शस्त्र पर भारत सरकार की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2009 से 14 तक कांग्रेस सरकार के पूर्व मुख्यमंंत्री अशोक गहलोत के शासन में विगत 12 साल में सर्वाधिक दो दर्जन साम्प्रदायिक दंगे हुए जिसमें गोपालगढ़, उदयपुर के पास सराड़ा और तत्कालीन मुख्यमंत्री गहलोत के गृह जिले जोधपुर के पास बालेसर के दंगे शर्मसार करने वाले रहे हैं। सीएजी रिपोर्ट कहती है कि राजस्थान के नौ जिले संवेदनशील थे जिनमें 35 थाने अतिसंवेदनशील चिन्हित किये गये थे और इन थानों में जितने अस्त्र शस्त्र हथियारों की जरूरत थी इसके मुकाबले पुलिस के पास मात्र 10 प्रतिशत हथियार ही थे।
इसके अलावा भी भारत सरकार की सीएजी रिपोर्ट में बहुत सी ऐसी गम्भीर बातों का खुलासा किया है जिसे बताना हम पुलिस की मौजूदा छवि और सुरक्षा की दृष्टी से ठीक नहीं समझते हैं। सब कुछ बताने पर राजस्थान के अपराध जगत में पुलिस के प्रति थोड़ा बहुत बचा हुआ भय भी खत्म हो सकता है। आम आदमी के दिलों में 'खाकी' वर्दी और पुलिस का बुलन्द ईकबाल बना रहे इसी शुभकामना के साथ हम उम्मीद करते हैं कि आम आदमी भी पुलिस से उतना ही प्यार करे, सम्मान करे जितना आप डॉक्टर, पानी, बिजली विभाग के कर्मचारी, गांव के पटवारी, तहसीलदार और आपके घर के आगे सफाई करने वालों से करते हैं। जैसे सरकार के अन्य विभागों के अधिकारी, कर्मचारी आपकी सेवा में हैं वैसे ही पुलिस भी आपकी सुरक्षा में लगी है। फर्क सिर्फ इतना है कि अन्य कर्मचारी दस से पाँच और सिर्फ दिन में सेवा करते हैं जबकि पुलिस दिन-रात, चौबीस घंटे, सातों दिन और यहाँ तक कि होली-दिवाली-ईद पर भी आपके त्यौहार की शांति बनाये रखने के लिए अपने परिवार, बाल-बच्चों से दूर खाकी वर्दी में ड्यूटी करती है।